KAAGAZ KE PHOOL--1963 MEY LIKHI HINDI KAVITA( PAPERS FLOWER--A HINDI POEM WRITTEN IN 1963)
Jun 14 2008 | Views 2021 | Comments (14) | Report Abuse
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कागज के फूल
मां चली गई है----पिछ्ले साल २२ अक्टूबर२००७ को उसका स्वर्गवास हो गया था--मगर उसकी यादें नही जाती--कुछ बातें ही निराली थी--पता नही क्यों हम से इतना प्यार करती थी---न जाने क्यों? अरे हमारे दो और भाई भी तो है---तीन बहिने भी है. उनसे क्यों नही था इतना लगाव? शायद हम गल्त है---हमारी सोच गल्त है--मगर हमे भी तो उससे अथाह प्यार था. उसने कहा हो कुछ और हमने मुड के सवाल किया हो--कभी नही----बिल्कुल नही---अरे बस, उसका कथन अन्तिम आदेश होता था हमारे लिये---फिर चाहे जमीन धंस जाए या आसमान फट जाए--हम नही रुकते थे किए बिना. शायद यह फर्क था हम मे और हमारे भाई-बहिनों मे. मगर मां भी हद कर देती थी.
हमारी हर चीज को सम्भाल के रखती थी. आब क्या बतांए आपको? इस कविता की ही बात ही ले लीजीए? कब लिखी थी हमने यह कविता ? अरे, सन १९६३ के नबम्बर मास में. हम नवम कक्षा मे थे. उन्ही दिनों दो हाद्से हुए थे---एक हाद्सा अमरीका के राषट्रपति कैनेडी की हत्या का था--दूसरा था हिन्दोस्तान के कुछ ऊन्चे फौजी पदाधिकारियो की हवाई दुर्घटना में मौत. आज कोई नही याद करता उन्हे--मगर थे बहुत नामी अपने जमाने के. उनमे से एक था लैफ्टीनेंट जनरल बिक्रम सिहं--हमारे गांव का था--बहुत चर्चे थे उसके नाम के उन दिनो. सुना है १९६२ के चीन युध मे उसने लेह को चीनीयों की गिरफ्त में आने से बचाया था. पूरा गांव उनके गीत गाता था.
जिस दिन उसका पार्थिव शरीर गांव लाया जाना था उस दिन हमारे स्कूल में एक समारोह था---वह हमारे स्कूल का ही स्टूडैंट रह चुका था. मुख्य मन्त्री सरदार प्रताप सिंह कैरों भी आ रहे थे. किसी एक स्टूडैंट को एक अच्छी कविता बोलनी थी उन सब के आदर में. बस क्या था प्रिन्सीपल कमल सूद ने हमे बुला भेजा और सुना दिया अपना हुक्म, " तुम याद करो कोई अच्छी सी कविता और तुम शास्त्री कृषण लाल के साथ इसका अभ्यास भी कर लो". उसी रात को हम ने रात भर बैठ के यह कविता लिखी थी. मेरे इस कविता के जरिए कुछ अनोखे सवाल थे अपने स्कूल से. बस उसके बाद हम भूल गए.
यह कविता फिर १९६७ में स्कूल की मैगजीन मे हमारे नाम से छपी थी. मै १९६६ में एन्.डी.ए. चला गया था. हमारे छोटे भाई ने लाकर यह मैगजीन हमारी मां को दे दी. मां ने यह कविता मैगजीन से कटवा के अपने पास अपने कागजों मे रख ली. अभी हम कल जब गांव गए तो मां के कागजों मे एक टुकडा मिला. इस को जब खोला तो मै हैरान हो गया--यह तो मेरी कविता थी--" ए बूडे पौधे बोल जरा, उस फूल का है अस्तित्व कहां?" तब मै स्कूल को माध्यम (पौदा) बना के देश की और ईशारा कर के उन देश-भगतों के बारे मॅ पूछ रहा था--जो तब नही रहे थे नबम्बर १९६३ में--जैसे की जनरल बिक्रम सिहं. यही भाव है इस कविता का.
मगर मेरी मां ने तो कमाल कर दिया था--इतने साल उस कागज के टुकडे को सम्भाल के रखा--जिसे मै तो भूल गया था--और यह हिन्दी भी अब तो नही आती है. चलो इसे पढ लेते है. मैने आखिर के दो -तीन लाईनों मे कुछ तबदीली की है. इतना कह दूं सरदार प्रताप सिंह कैरों ने पास बुला कर खूब पीठ थप थपाई थी. मगर देखता हूं वही बातें है---और वही रोना -धोना है---४५ साल के बाद भी--"मेरा भारत महान---सब कायदे-कानून लहू-लुहान."
शाखा पर तेरी जन्मा था, आंचल में तेरे बडा हुआ;
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
कलियों का बन्धन उस से था, भंबरो का पहरा जिस पे था;
माली के कर कमलो से था बचपन उसका सजा-खिला,
जब सब ने उसको दिया स्नेह फिर सौरभ-कोष वह गया कहां?
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
ग्रीषम की तपती गर्मी में न चेहरा उसका मुरझाया,
शीतॄ ऋतु के अगमन से न महक मे उसके फर्क आया,
अब फहरी है जब बसन्त-पताका, कहां है उसका नामो-निशां?
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
ए साथी फूलो तुम्ही बताओ, ए माली तू अन्दाज लगा;
ए चान्द सितारो कुछ सुराग बताओ, ओ भंबरे तू भी सोच जरा;
क्या आंख मिचौली खेला वह या मूक भ्रमण पे निकल गया?
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
कुछ दिन बीते, कुछ साल गए, कुछ् मौसम आने जाने है;
कुछ नए खिले है फूल यहां, कुछ और भी खिलने वाले है;
गर बाग आज भी हरा भरा, उसकी महक के कारनामे है.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
क्या नाम मै उसका तुम्हे बताऊं, कई नाम है उस दीवाने के,
खूब जुल्म सहे थे उसने तब, इस बाग में महक लाने को,
नामो के ताने बाने मे, क्या नाम दूं उस परवाने को?
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
शायद "कर्म" का "मोहन" था या "मोती" का जवाहर वह;
शायद "बोस" था "शुभ्-आश"का या "पटेल" "सरदार" था वह;
शायद "गुरू" का "भगत" था या "मौलाना" "आजाद" था वह.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
शायद मैं हूं भूल गया, कुछ तू भी है अन्जान बना,
सत्राह साल ही बीते है नही किस्सा अभी हुआ पुराना.
कम हो गई है महक लेकिन, लग रहा है बाग बिराना.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
सूख रही है शाखांए तेरी, कुछ जडें भी कमजोर पडी ;
क्यों पानी अब मिलता नही,क्यों प्रकाश की कमी पडी?
क्या रातों की स्याही में कुछ चोरों की कुल्हाडी चली.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
नया जमाना नया दौर है, नए फूलों का मचा शोर है;
भान्ति भान्ति के रंग है उनमे, मै देख देख के दंग हूं उनसे;
कुछ भंबरे उन पे मंडराते है, नही मेरे मन को भाते है.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
कोई पनप रहा है छाया मे, कोई मस्त है अपनी माया मॅ;
कुछ बिकने को तैय्यार खडे, कुछ गुलदान में बेकार पडे;
क्यों बाग का कोई सम्मान करे, फूल कागज के प्रधान बने.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
चल ढूंडे उसके अंश को आज, कर खतम कागजी फूलों का राज;
क्या मह्के यह कागज के फूल, इनके रग रग मे वनावट के असूल;
क्या "राजी" होगा देश मजबूत, गर पैदा होते रहे कपूत.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
कागज के फूल
मां चली गई है----पिछ्ले साल २२ अक्टूबर२००७ को उसका स्वर्गवास हो गया था--मगर उसकी यादें नही जाती--कुछ बातें ही निराली थी--पता नही क्यों हम से इतना प्यार करती थी---न जाने क्यों? अरे हमारे दो और भाई भी तो है---तीन बहिने भी है. उनसे क्यों नही था इतना लगाव? शायद हम गल्त है---हमारी सोच गल्त है--मगर हमे भी तो उससे अथाह प्यार था. उसने कहा हो कुछ और हमने मुड के सवाल किया हो--कभी नही----बिल्कुल नही---अरे बस, उसका कथन अन्तिम आदेश होता था हमारे लिये---फिर चाहे जमीन धंस जाए या आसमान फट जाए--हम नही रुकते थे किए बिना. शायद यह फर्क था हम मे और हमारे भाई-बहिनों मे. मगर मां भी हद कर देती थी.
हमारी हर चीज को सम्भाल के रखती थी. आब क्या बतांए आपको? इस कविता की ही बात ही ले लीजीए? कब लिखी थी हमने यह कविता ? अरे, सन १९६३ के नबम्बर मास में. हम नवम कक्षा मे थे. उन्ही दिनों दो हाद्से हुए थे---एक हाद्सा अमरीका के राषट्रपति कैनेडी की हत्या का था--दूसरा था हिन्दोस्तान के कुछ ऊन्चे फौजी पदाधिकारियो की हवाई दुर्घटना में मौत. आज कोई नही याद करता उन्हे--मगर थे बहुत नामी अपने जमाने के. उनमे से एक था लैफ्टीनेंट जनरल बिक्रम सिहं--हमारे गांव का था--बहुत चर्चे थे उसके नाम के उन दिनो. सुना है १९६२ के चीन युध मे उसने लेह को चीनीयों की गिरफ्त में आने से बचाया था. पूरा गांव उनके गीत गाता था.
जिस दिन उसका पार्थिव शरीर गांव लाया जाना था उस दिन हमारे स्कूल में एक समारोह था---वह हमारे स्कूल का ही स्टूडैंट रह चुका था. मुख्य मन्त्री सरदार प्रताप सिंह कैरों भी आ रहे थे. किसी एक स्टूडैंट को एक अच्छी कविता बोलनी थी उन सब के आदर में. बस क्या था प्रिन्सीपल कमल सूद ने हमे बुला भेजा और सुना दिया अपना हुक्म, " तुम याद करो कोई अच्छी सी कविता और तुम शास्त्री कृषण लाल के साथ इसका अभ्यास भी कर लो". उसी रात को हम ने रात भर बैठ के यह कविता लिखी थी. मेरे इस कविता के जरिए कुछ अनोखे सवाल थे अपने स्कूल से. बस उसके बाद हम भूल गए.
यह कविता फिर १९६७ में स्कूल की मैगजीन मे हमारे नाम से छपी थी. मै १९६६ में एन्.डी.ए. चला गया था. हमारे छोटे भाई ने लाकर यह मैगजीन हमारी मां को दे दी. मां ने यह कविता मैगजीन से कटवा के अपने पास अपने कागजों मे रख ली. अभी हम कल जब गांव गए तो मां के कागजों मे एक टुकडा मिला. इस को जब खोला तो मै हैरान हो गया--यह तो मेरी कविता थी--" ए बूडे पौधे बोल जरा, उस फूल का है अस्तित्व कहां?" तब मै स्कूल को माध्यम (पौदा) बना के देश की और ईशारा कर के उन देश-भगतों के बारे मॅ पूछ रहा था--जो तब नही रहे थे नबम्बर १९६३ में--जैसे की जनरल बिक्रम सिहं. यही भाव है इस कविता का.
मगर मेरी मां ने तो कमाल कर दिया था--इतने साल उस कागज के टुकडे को सम्भाल के रखा--जिसे मै तो भूल गया था--और यह हिन्दी भी अब तो नही आती है. चलो इसे पढ लेते है. मैने आखिर के दो -तीन लाईनों मे कुछ तबदीली की है. इतना कह दूं सरदार प्रताप सिंह कैरों ने पास बुला कर खूब पीठ थप थपाई थी. मगर देखता हूं वही बातें है---और वही रोना -धोना है---४५ साल के बाद भी--"मेरा भारत महान---सब कायदे-कानून लहू-लुहान."
शाखा पर तेरी जन्मा था, आंचल में तेरे बडा हुआ;
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
कलियों का बन्धन उस से था, भंबरो का पहरा जिस पे था;
माली के कर कमलो से था बचपन उसका सजा-खिला,
जब सब ने उसको दिया स्नेह फिर सौरभ-कोष वह गया कहां?
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
ग्रीषम की तपती गर्मी में न चेहरा उसका मुरझाया,
शीतॄ ऋतु के अगमन से न महक मे उसके फर्क आया,
अब फहरी है जब बसन्त-पताका, कहां है उसका नामो-निशां?
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
ए साथी फूलो तुम्ही बताओ, ए माली तू अन्दाज लगा;
ए चान्द सितारो कुछ सुराग बताओ, ओ भंबरे तू भी सोच जरा;
क्या आंख मिचौली खेला वह या मूक भ्रमण पे निकल गया?
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
कुछ दिन बीते, कुछ साल गए, कुछ् मौसम आने जाने है;
कुछ नए खिले है फूल यहां, कुछ और भी खिलने वाले है;
गर बाग आज भी हरा भरा, उसकी महक के कारनामे है.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
क्या नाम मै उसका तुम्हे बताऊं, कई नाम है उस दीवाने के,
खूब जुल्म सहे थे उसने तब, इस बाग में महक लाने को,
नामो के ताने बाने मे, क्या नाम दूं उस परवाने को?
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
शायद "कर्म" का "मोहन" था या "मोती" का जवाहर वह;
शायद "बोस" था "शुभ्-आश"का या "पटेल" "सरदार" था वह;
शायद "गुरू" का "भगत" था या "मौलाना" "आजाद" था वह.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
शायद मैं हूं भूल गया, कुछ तू भी है अन्जान बना,
सत्राह साल ही बीते है नही किस्सा अभी हुआ पुराना.
कम हो गई है महक लेकिन, लग रहा है बाग बिराना.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
सूख रही है शाखांए तेरी, कुछ जडें भी कमजोर पडी ;
क्यों पानी अब मिलता नही,क्यों प्रकाश की कमी पडी?
क्या रातों की स्याही में कुछ चोरों की कुल्हाडी चली.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
नया जमाना नया दौर है, नए फूलों का मचा शोर है;
भान्ति भान्ति के रंग है उनमे, मै देख देख के दंग हूं उनसे;
कुछ भंबरे उन पे मंडराते है, नही मेरे मन को भाते है.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
कोई पनप रहा है छाया मे, कोई मस्त है अपनी माया मॅ;
कुछ बिकने को तैय्यार खडे, कुछ गुलदान में बेकार पडे;
क्यों बाग का कोई सम्मान करे, फूल कागज के प्रधान बने.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
चल ढूंडे उसके अंश को आज, कर खतम कागजी फूलों का राज;
क्या मह्के यह कागज के फूल, इनके रग रग मे वनावट के असूल;
क्या "राजी" होगा देश मजबूत, गर पैदा होते रहे कपूत.
ए बूडे पौधे बोल जरा उस फूल का है अस्तित्व कहा॔?
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