Friday 1 June 2012

HINDI POEM-19-----मौत की कहानी, चोर की जुबानी

मौत की कहानी, चोर की जुबानी
(MAUT KI KAHANI, CHOR KI JUBANI)

चोर उवाचः-
चोर हूं मैं,चोर सही,पर नेकी का दावेदार नही--
पहन के चोला मज़हव का,मैं मौत का ठेकेदार नही;
चोरी मेरा धन्धा है,शराफत का कारोवार नही--
जो नाम खुदा का लेते है,वह खुदा के ताबेदार नही.
चोरी करूं मैं लाशों की, कोतवाली और शमशान से--
तस्कर बन फिर बेचता हूं, कंकाल बना इन्सान के;
सौदागर हूं मैं मुर्दों का, पर काम करूं इमान से--
"राम-रहीम" जपने वाले, मेरा उध्योग बढाए शान से.
वतन मेरे की अज़व कहानी,कहो आर्यव्रत या हिन्दोस्तान-
नाम में क्या रखा है, हम खुद मिटाएं इसके निशान;
क्यों आए बाहर से दुश्मन, अन्दर ही जब लगा बाज़ार?
भाई का भाई दुश्मन है,मॉं-बहनों का हो रहा शिकार.
मेरे भारतबर्ष के अहाते में क्यों बुझ रहे आज़ चिराग है?
कहीं उज़डी मां की गोद है, क्यों लुट रहे खूब सुहाग है?
अन्धेरे में शोले भडक रहे, क्यों लम्बी हो रही रात है?
कश्मीर ज़ला, पंजाब जला,क्यों ज़ला यह गुजरात है?
कीडा सबके लगा अक्ल में,कोई दवा न इस बिमारी की--
मस्जिद में मुल्ला रोगी है, मन्दिर के सभी पुजारी भी;
गली-कूचे में फैला अब, सब वैद-हकीम भी हार गए,
बच्चा-बूढ़ा, पढे-लिखे, अब भिखारी भी शिकार हुए.
इक दिन की क्या बात कहूं, शहर में हुआ दंगा था--
मज़हव के ठेकेदारों ने शुरू किया यह अडन्गा था;
चल निकला मैं काम पे अपने,खतरनाक यह पंगा था--
ज़गह ज़गह मुर्दों का ढ़ेर,कोई कटा हुआ,कोई नंगा था.
अन्धेरा था, खमोशी थी, पर मेरी खिल रही बान्छे थी--
मुझे रोकने वाला कोई नही, ढ़ेर ही मिल रही लाशें थी;
तभी दूर अचानक चीख हुई, कुछ मेरे मन में बहम हुआ?
क्या खौफ़नाक आवाज़ थी वह, मैं डर के मारे सहम गया--

'मौत' उवाचः-
चोर ने देखा धुआं निकलता ,आग की लपटें बढ़ रही थी--
इक कोने में "मौत की रानी" ज़ोर ज़ोर से हस रही थी;
"पागल हूं, दीवानी हूं, मुझ से न करो तुम अठखेलीयां--
न जाने कितने अरसे से, यह बार बार मै कह रही थी?"
"देखिए! इस लाश को ,यह मन्दिर के बडे पुजारी थे--
देखिए! उस मुर्दे को, वह मस्जिद में अधिकारी थे;
मार डाला इनको मैने, इन ही के खुदा के घर--
दूसरों को मारने की मुझे हर रोज़ देते सुपारी थे."
"खुदा को बांट लिया कुछ ऐसे, गाते फिर अपना ही तराना--
इक मन्दिर की धुन बजाता,दूसरा गाए मस्जिद का गाना;
इक बहरा था, इक अन्धा था, क्या होता आपस में मेल?
नफ़रत की दुनिया मे रह्ते, नफ़रत बन गई इनका खेल."
"पैदा हुए श्री राम यहां", पंडित का यह होता नारा--
"मस्जिद की ज़गह है यह",मौलवी का था पलट इशारा;
खून की 'होली' का यह नुस्खा, घर-घर में मशहूर हुआ;
पी अपने बच्चों का खून, तुम्हारा देश नशे में चूर हुआ.
पढ़ता है "रहीम" अगर, "राम" के घर हर रोज़ नमाज़--
कोइ मुझे बताए तो क्यों "राम" का घर हो गया नापाक?
राहें अपनी अपनी है यह, वह रूहानी मन्ज़िल पाने की--
"प्रभु" के दिल मे फर्क नही, क्या बात है यह समझाने की?
मुझको हर इन्सान बराबर, 'कुरान' पढे या वह 'गीता'--
मस्जिद में पूजे 'अल्लाह',मन्दिर में 'राम' और 'सीता';
यह राहें मुझ तक ही लाएंगी, जिनका जब समय बीता--
कुछ न साथ ले जाने दूंगी, जब काट दूं जीवन का फीता.

मज़हव महज़ जीने की राह है, मैं हूं एक अटल सच्चाई--
मुझ तक ही वह भी आए, जिनके लिए हो रही लडाई;
मुझ से आगे कहां गए, किसको इसकी भनक मिल पाई--
स्वर्ग-नर्क यहीं है सब कुछ, उनकी हरदम थी यह दुहाई.
सुनो औ,चोर! सुनो तुम भी, छोडो चोरी का यह धन्धा--
काम करो नेकी का ऐसा, जिसे याद करेगा दुनिया का बन्दा;
अमल करो मेरी इन बातों पे, नही हाल होगा तेरा भी मन्दा--
घर जाने की ठानो तुम, फैंक दो आज़ मुर्दों का पुलन्दा.
चोर उवाचः
आदत से मज़बूर मै ठहरा, उठा लाया कुछ मुर्दे साथ--
नाम न कोई, धर्म न कोई, मुर्दों की थी यही औकात;
ला कर उनको जब डाल दिया, मैने अपने तहखाने में--
तभी सुना दो मुर्दों को आपस में मैने करते बात.
लाश उवाचः-
सुना औ,पंडित! सुना तुमने, हम तुम कैसे है बदनाम?
देख रहा हूं मौलवी भाई! क्या क्या हम पे लगे इल्ज़ाम?
झूम उठती यह दुनिया सारी हमारे इक इशारे पे---
तुम कह्ते 'अल्लह हो अक्बर!' मैं कह्ता 'जय हनुमान'.
हैरान हूं मैं पंडित जी! 'मौत' का सुनके यह एलान--
कौन सिखाता बच्चों को, क्या हिन्दु, क्या मुसलमान?
सच्च तो यह है पंडितजी,घर से ही मिलती तालीम--
फ़ंस जाए पैदा होते ही, मज़हव के फंदो में इन्सान.
सच्च कहा औ,मौलवी भाई! हर बच्चे को कौन सिखए--
नाम क्या उसका,धर्म क्या उसका,कौनसा वह त्यौहार मनाए?
क्यों देती है छुट्टी सरकारें 'ईद', 'दीवाली','क्रिसमिस'की?
मज़हव के इस महल का ढ़ान्चा इनसे ही तैयार हो जाए.
वाल-मुर्दा उवाच्-
"बन्द करो यह बकबक दोनो", बोली एक बच्चे की लाश--
जिन्दा तुम ज़हर उगलते थे, अब क्यों हो रहे खुद निराश?
खुदा अगर सचमुच में है, तो वह कोई इन्सान नही--
तुमने उसे इन्सान बना के तोड दिया सब का विशवास.
औ, 'मौलवी-पंडित' दोनो तुम, छोडो अपना झूठा अफ़साना--
चारों और आग लगी है, जल रहा मेरा भी आशियाना;
उड रही आज हवा में राख मेरे, तेरे और सब के घर से--
ज़र्रा ज़र्रा भर रहा है इस मज़हवी नफरत का हरज़ाना.
सुनो जरा, सुनो तुम दोनो, सुनो वक्त क्या कहता आज?
ख्यालों की चंद लकीरें है,जो पहन के बैठी मज़हव का ताज़;
गुजरे वक्त की बातें है, नही अहमियत इस ज़माने में--
न खुदा ही इतना भोला है, जो समझ न पाए इनका राज़.
कवि उवाच्-
सुन के इनकी बातें ज्यों, "राजी" का मन भी भर आया--
किस मज़हव की चावी से मौत का भेद कभी खुल पाया?
क्यॉं आती, कब आती है, कब किस को यह साथ ले जाए?
जबाव नही इन बातों का,क्यों जाति-धर्म का राग हम गाएं?

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