Saturday, 9 June 2012
A SHORT STORY IN HINDI --- CHIRAND KA TIBBA
CHIRAND KA TIBBAA( HILLOCK OF CHIRAND)--A SHORT STORY IN HINDI!
Jun 18 2008 | Views 1988 | Comments (19) | Report Abuse
Tags: mahabharat balachaur cheervardhan duratma lehna
" चिरांद का टिब्बा"
" शाम का समय था. मन्द मन्द हवा चल रही थी. आसमान मे बादल, घने काले बादल एक खौफनाक मन्जर पेश कर रहे थे. मै बेखबर उस अन्जान सूने रास्ते पे चला जा रहा था. अकेला था मगर डरपोक नही. खामोशी और सन्नाटा कभी कभी बाद्लों की गर्जन से टूट जाता था. अचानक पूर्व दिशा मे कभी कभार बिजली चमकती और दूर दूर तक छोड जाती सूनेपन का आभास. यह जगह ही ऐशी थी. अरे, कहते हैं यह 'चिरांद् का टिब्बा' महाभारत के समय से ज्यों का त्यों है. कोई कह्ता यहां भूत-प्रेत रह्ते है. कोई कह्ता यहां 'इच्छाधारी नाग और नागिन' रह्ते है-------------"
मुझे यह सब पढ कर डर तो नही लग रहा था, मगर अचम्भा जरूर था . यह उर्दू से हिन्दी में अनुबाद किए हुए कुछ १५-२० पन्ने थे. यह हमारी हवेली की अल्मारी को साफ करते हुए हमारे पिता जी को मिले थे--- आज से कोई ५५ साल पहले. सम्भाल के रखा अपने पास, काफी देखभाल की जब तक वह नौकरी करते रहे. उन्होने ही इसका हिन्दी में अनुबाद भी किया था. अरे, क्या अनुबाद किया-----बस लिपि ही तो बदली थी-----बाकी सब तो ज्यों का त्यों था. उन्होने भी हिन्दी सीखी ही थी तब. भई, सीखनी पडी थी. हिन्दोस्तान आजाद हो गया था------प्रमोशन का चक्कर जो ठहरा. फिर हमारे पिताश्री १९६८ मे रिटायर हो गए. बस आव देखा ना ताव कर दिए सारे कगजात मां के हवाले.
मां तो मां थी--हर चीज को सम्भाल के रखती थी. अब उसके बाद जब हमने उनके सामान को चैक करना शुरू किया तो बहुत सारे कागज पत्र मिले. बस उन्हीं कागजात में यह पत्र भी थे. पिताश्री ने देखे और थमा दिए हमें, यह कह्ते हुए, " अरे, तू अपने आपको बहुत बडा लेखक और कहानीकार समझता है---ले पढ इसे जरा---देख मेरे दादा ने क्या कहानी लिखी थी--सच्ची कहानी---आपबीती---"
क्योंकि यह उनके दादा जी "जनाब लेहना सिहं" की कोई आपबीती कहानी थी-- ---उन्होने इसका हिन्दी मे अनुबाद कर लिया था, सन १९५७-५८ मे---तब उनको भी हिन्दी सीखनी पडी थी---हमारे वालिदान कह्ते है तब हिन्दी सीखने का सरकारी अधिकारियों पर काफी जोर था. उन्ही दिनो सरकार ने सब कर्मचारीयों के लिए "मिनिमम हिन्दी टेस्ट" पास करना अनिवार्य कर दिया था और जब हिन्दी सीखी तो सब से पहले इसे ही हिन्दी मे तबदील कर दिया था.
सच्चा अफसाना है यह------उन्होने खुद यह किस्सा अपने दादाजी से बचपन मे सुना था---एक दफा नही कई बार. जब भी उनके दादा लगान बसूल करने जाते उन्हे साथ ले जाते थे-----कह्ते है २२ गांव से लगान बसूलते थे-----सुना है वह कोई अन्ग्रेजों के ओह्देदार थे---क्या कह्ते है ------"सफेदपोश या इलाका मैजिस्ट्रेट". हमारी दादी कह्ती थी वह बहुत ही सख्त किस्म के आदमी थे---उनकी अपने बेटे, श्री बदन सिहं, से कतई नही बनती थी. उनका अपने बेटे, यानि हमारे दादा, के साथ लाहौर हाई कोर्ट मे काफी साल मुक्द्दमा चला था-----उन्होने अपने बेटे को अपनी जायदाद से बे-दखल करना था---एक ही बेटा था----पढा-लिखा मगर शायद आलसी और विलासी-----दादी भी यही कह्ती थी. मगर केश चलते चलते सन १९२८ में उनका देहान्त हो गया. बस दादा ने तो गुलछर्रे उडाए होंगे. सुना है अपनी इकलौती बेटी की शादी मे पांच पांच तोले के सोने के कंगन बरात के उपर से फैंके थे. आज तक हमारी हवेली के पास के कूंए मे से लोगों को वह कंगन मिलते है. मगर जल्दी ही अपने 'फादर' के मरने के छः साल मे ही उनकी भी मौत हो गई. १९३४ मे उनका भी देहान्त हो गया था------और छोड गया अपने छोटे छोटे चार बेटों को असाहय------हमारी दादी को काफी कठिनाईयां झेलनी पडी थी. अरे, मैं भी अपने घर का इतिहास खोल बैठा और छोड गया बीच मे ही "चिरांद के टिब्बे की कहानी". शुरू करते है फिर वह कहानी.
हमारे गांव, बलाचौर(आजकल पंजाब के नवांशहर जिला मे है, पहले यह होशियारपुर जिला में था) ) से ७-८ मील दूर पशिचम की और एक और गांव है--"मेहतपुर" कह्ते है इसे. यहां है यह "चिरांद का टिब्बा". इससे कोई १५-२० किलोमीटर की दूरी पर है एक ऐतिहासिक शहर "राहों". सतलुज नदी के किनारे पर है यह शहर. 'राहों' महाभारत के समय का शहर है. कह्ते है उस समय---महाभारत के समय ---इतनी आबादी हो गई थी कि कुत्ता 'राहों' में मकान पे चढता था और 'भद्दी' मे नीचे उतरता था. "भद्दी" हमारे गांव के उत्तर मे है---- कोई बीस मील दूर. यह भी "रामायण" के समय का पुराना शहर है--इसका पुराना नाम "भद्रावती" है. पूरी दूरी होगी पचास मील. काफी ऐतिहासिक है हमारा इलाका.
हमारा गांव ही ले लो--शेरशाह सूरी जिसने हुमांयु को भगाया था 'दिल्ली सल्तनत' से. वह भी यहां से "बाबा बलराज" का आषीर्वाद लेकर गया था---सुना है बाबा ने पांच साल का बरदान दिया था ------और वह पांच साल ही राज कर सका हिन्दोस्तान पे.-----दारा शिकोह, ओरंगजेब का बडा भाई -----वह भी यही छुपा था कई साल हमारे गांव मे------- उसका तो महल था, हमारे घर से बिल्कुल सटा हुआ------मगर ढाह दिया है अभी लोगों ने और बना दिया है 'राणा प्रताप महल'----फिर वह पुराना---- किला क्या हुआ उसका---तोड दिया अधुनिकिकरण की हबश ने----वह गुरूओं का कूंआ भी नही रहा-----ऐसा सुना है---गुरु नानक--यहां रह चुके है. कह्ते है किसी जमाने में सतलुज नदी गांव के दक्षिण मे बहती थी सटी हुई----अब तो तकरीबन सात--आठ किलोमीटर दक्षिण मे बह्ती है------तब यह गांव यहां नही था यहां अब है. कोई चार पांच मील उत्तर की और---उस जगह को "थे" या "बखुए" कह्ते है आज. लेकिन यह एक युद्ध भूमि थी----यहां हमारे गांव का हर बच्चा बूढा कट मरा था एक औरत की आबरू बचाने के लिए. आज भी यह प्रथा है कि 'गांव के "राजपूत" परिवार अप्रैल के मास में इस जगह की पूजा करते है नवरात्री के दिनों मे. जानना चाह्ते हो वह औरत कौन थी?---- वह माता "सीता' थी--जिसे लक्षमण छोड गया था चुपचाप 'सतलुज' पार कर के-----और जब वह अकेली भटक रही थी जंगल में तो गांव वालों ने उसे शरण दी थी ----लेकिन तब पड गई थी बुरी नजर 'भद्रावति' के राजा की. उसने उसे पाना चाहा, मगर पूरा गांव उठ खडा हुआ बगावत मे-----कट गया पूरा गांव मगर बचा गया "सीता" को---रात भर में दो नौजबान ले कर निकल गए थे सीता को अमृतसर की ओर------और दिया सीता ने वरदान--नाम पडा 'वरदानपुर'---बदल के बना "बलराजपुर" "बाबा बलराज" के नाम पर और फिर 'बलाचौर'. खैर छोडो चलते है--- अपनी कहानी की ओर.
श्री लेहणा सिंह, यानी कि हमारे पडदादा जी, 'राहों' मे स्कूल में पढते थे. पूरे इलाके मे वही एक स्कूल था उन दिनों. यह बात होगी जब वह थे १४-१५ साल के--लगभग सन १८६३-६४ की बात होगी---तब पांचवी या छटी क्लाश मे होगे हमारे पडदादाश्री. बस बात है यह कोई अगस्त या सितम्बर के महीने की . काफी लम्बी हो गई भूमिका. आगे शुरू करते है---------
"-------- अचानक बिजली कडकी. रौशनी हुई-----और मै कया देखता हूं कि "चिरांद के टिब्बे" की दहिनी ओर कोई लालटैन लिए हुए कुछ ढूंढ रहा था राख के ढेर मे. मेरे से होगी दूरी कोई पचास कदम से साठ कदम. मै थोडा सहम गया था. मगर आगे चलता गया. अभी थोडा ही चला था कि फिर बिजली फिर चमकी और देखता हं वह लालटैन वाला इन्सान गायाब था. मै घबरा गया--कहां गया होगा--मै सोच ही रहा था कि फिर बिजली कि चमक मेरी आंखों को चुन्धिया गई. और क्या देखता हूं ठीक मेरे सामने १० कदम की दूरी पर एक चौडे फन वाल नाग अढाई से तीन फीट जमीन से उपर उठा हुआ था. मेरी तो हवा गोल हो गई. मेरे कदम रुक गए. मै तीन चार साल से पैदल अपने गांव इसि रास्ते जाता था---कभी भी ऐसा नही हुआ था मेरे साथ--आज यह कया हो रहा है---मै यह सोच ही रहा था कि मुझे एक इन्सानी आवाज सुनाई दी-----"
"-----ओ लेहणा सिंह--तू क्यों रुक गया है---तू निकल जा. "
"मै हैरान था आवाज मेरे सामने से आ रही थी और उधर तो मैने सांप ही देखा था. फिर कही यह लालटैन वाला आदमी तो नही था. मगर फिर आवाज आई------"
" अरे, वेवाकूफ इधर देख मेरी तरफ---मै हूं मै---चिरवर्धन"
और तभी बिजली फिर चमकी और मैने साफ सुना नाग को बोलते हुए----इन्सान की आवाज में.
" अरे इधर देख् मै चिरवर्धन हूं"---नाग कह रहा था---------यह तू रौशनी देखता है यह बिजली कि नही है मगर मेरी मणी कि है----'
'ओ हो तो आप है वह लालटैन वाले इन्सान'----मैने कहा तो आवाज आई," अरे नही बच्चे, वह ही तो है सारे फसाद की जड--वह तो दुरात्मा है--दुर्योधन का जासूस"
"क्या कहा--कौन दुर्योधन--किस दुरातमा की बात कर रहे हो, नाग बाबा"---मैने हौसला कर के पूछ ही लिया.
"सुनो--हमारा और उसका किस्सा 'महाभारत' के जमाने से चला आ रहा है. तुमने सुना होगा--पाण्डवों को १४ साल का वनबास हुआ था--जुए मे हारने के बाद---१२वे साल के वनबास मे वह राजा भद्रावती की नगरी ( बलाचौर के उत्तर पूर्व में) से काफी धन दौलत ले के इस इलाके मे आ के छिप गए थे. 'दुरात्मा' उनका नौकर था--लेकिन काम करता था दुर्योधन के लिए---उसका जासूस था वह--उसको पाण्डवों की खबर पहुंचानी थी दुर्योधन के पास--मै भी उसी कि तरह पाण्डवों के गिरोह का सैनिक था. दुरात्मा ने सोचा मै उसका साथी हूं. उसने मुझे पाण्डवों की यह खबर राजा दुर्योधन तक पहुंचाने के लिए कहा. मुझे यह विसवासघात अच्छा नही लगा--मै ने यह बात 'नकुल' को बता दी. बस दुरात्मा पकड लिया गया-- और उसे भीम ने मृत्यु द्ण्ड देने की ठान ली----मगर बडे भैय्या को बता कर ----यही भीम की गल्ती थी--उसे युधिष्टर से पूछ लेना चाहिए था. जब युधिष्टर को पता चला तो उसे बडा दुख हुआ--उसने दुरात्मा को हर मुसीबत से बचाने का वचन दे रखा था. बस कहानी पहुन्ची युधिष्टर के पास---उसने भीम को उसे छोड देने को कहा--भीम ने उसे छोडा मगर उसकी दोनो आंखे निकाल के ---वह बडे भाई के पास जाकर खूब रोया और आंखो के लिये दुहाइ दी---तब युधिष्टर ने उसको वरदान दिया कि हर अमावस की रात को उसको दिखाई देगा अन्धेरे मे---अगर अमावस की रात को वह किसी इच्छाधारी नाग की मणि ले लेता है तो उसकी आंखे फिर से लौट आंईगी.
" आज अमावस कि रात है और वह मेरी मणी ढूंढ रहा है--मै उसे ले कर इधर उधर भगता हूं. मेरी बद किस्मत है कि आज के दिन मै इन्सानी रूप धारण नही कर सकता"--चिर्वधन नाग ने कहा.
मैने फिर बोला, " नाग बाबा--आप यहां से दूर क्यो नही चले जाते हो--क्यों इधर ही रह्ते हो"
" यही तो मुसीबत है, लैहणा--मै पाण्डवों की दौलत कि हिफाजत कर रहा हूं--मै नही जा सकता कही--इस टिब्बे मे उनकी वह सारी दौलत रखी है जो उन्हे भद्रावती के राजा ने बातौर इनाम दी थी. उसे कहां ले जांऊ--बेशुमार दौलत--हीरे जवारात है, बेटा. मुझे युधिष्टर ने कहा था कि अगर मैने इसे कलियुग के अन्त तक सम्भाल के रखा तो वह खुद मुझे स्वर्ग ले जांएगे---वह मुझ से 'कलगी' अवतार के साथ आने का वायदा कर के गए है." चिर्वर्धन नाग ने कहा.
मैने कहा,"नाग बाबा, आपकी बहुत इज्जत करता हूं. मगर तुम्हारी बाकी सब बातें ठीक मगर यह दौलत की कहानी मे दम नही "
'यहां मै बैठा हू बहां पे एक ईटनुमा चीज है--उठा लेना--ले जाना अपने साथ--यह बेश्कीमती "लाल" है किसी जौहरी को दिखाना--तुम्हारी किस्मत खुल जाएगी" इतना कह कर नाग देवता मेरे आगे चलने लगा---मैने पत्थर उठाया ही था कि वह लालटैन वाला आदमी मेरे पीछे से बोल पडा--" यह सब झूठ है--लाओ यह लाल मुझे दे दो"
नाग बाबा ने कहा," भाग जाओ लैहणा--यह अन्धा है अभी भी--जब रात गहरा जाएगी इसकी आंखों की रौशनी लौट आएगी-- फिर तुम नही बच पओगे---भाग जाओ--यह लाल इसे नही मिलना चाहिए.
मैने भागना शुरु किया--और भागता रहा--जब तक मै 'मैह्न्दीपुर'गांव के बसीमे(सीमा) तक नही पहुंच गया. एक घन्टे से ज्यादा भागा था मै.--उस के बाद मै कभी भी अपने स्कूल से उस रास्ते पैदल नही आया.
मगर मेरी मुसीबतें खतम नही हुई थी--एक दिन स्कूल मे एक आदमी आया और मुझ से कहने लगा--वह "लाल" कहां है. मै हैरान था--"कौन सा लाल" मैने कहा. "अरे---वही जो मैने तुम्हे दिया था----" उस आदमी ने बोला था. मै कुछ देर चुपचाप उसे देखता रहा. फिर हिम्मत बांध कर कहा,"क्या लेने के लिए दिया था--नाग बाबा"
"नही उसके चौरी होने का डर है--दुरात्मा हमेशा तुम्हारे को ढूंढता रह्ता है--वह छीन लेगा--मै तुम्हारे साथ रहूंगा." चिरवर्धन नाग ने कहा था. "मगर कैसे "--मैने कहा--"इसकी फिक्र मत करो तुम" मैने उसको कभी स्कूल मे देखा नही .
फिर एक दिन मेरे साथी ने मुझे पढने के बाद रात मे दिया बुझाने के लिये कहा-------कि अचानक एक लम्बी सी बाजू कहीं से आई और दिया बुझा दिया. -------तभी मेरे साथी कि चीख सुनाई दी-----और आवाज आई --' सो जाओ--मैने दुरात्मा को मार दिया--सुबह होते ही घर चले जाना--अब तुम यहां नही रह सकते".
हमारे मास्टर जी आए--छान बीन हुई--पता चला किसी जहरीले सांप ने काटा था----बहुत ही जह्रीला था. मगर वह बाजू की कहानी किसी को नही मालूम.
बस इस तरह मै आठवी जमात की पढाई छोड कर गांव बापिस चला आया. वह "लाल" अब भी मेरे पास है---दिखाया तो एक जौहरी को उसने कहा था बहुत कीमती है--इसे किसी बडे शहर मे बेचना---------------
यहां यह कहानी खतम हो गई थी-----क्या हुआ उस 'लाल'का ? कह्ते है कोइ बेशुमार कीमती पत्थर था. कोई नही जानता क्या हुआ ? इतना सबको मालूम है कि श्री लेहणा सिंह, हमारे पड्दादा, आठ्वीं की पढाई बीच मे ही छोड कर भाग आए थे? क्यॉ? कोई नही जानता---शायद यही बजह होगी.
© rajee kushwaha., all rights reserved.
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear gita khanna,
thanks a ton for the kind words. it is my pleasure to know that you liked this write-up. it will be wonderful if you do read my other blogs, too. thanks for the nice compliments. regards. rajee
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Gita Khanna posted 4 yrs ago
wow.... looks like everytime i will visit your space and read some account, i will end up saying "wow !" first.....
i thoroughly enjoyed reading your recount here of your ancestral experiences .
while simultaneously you seamlessly intertwine so many of your family and surroundings details, as well, within your core story element, very effectively.
in todays' times of "short time span concentration / attention grabbing" mode of writings prevalent everywhere , your style comes accross as a fond old familiar note of nostalgia.
you sure have some very deep & affectionate family roots.
regards,
gita
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear namitaji,
thanks a ton for your very pleasing and inflating comments--iam really honoured. as for as i know the story has been certaily written by my great grand pa. i can not vouch for the veracity of the story. i do not know and can not say if he really made up this story to make it an excuse to leave his studies in between. but he did write it. there is no other written stuff by him to establish his credentials as a writer. there is no dearth of some persian/ urdu papers on certain legal matters on land matters.
as for as history of my place is concerned--there are a lot of true stories---some of the monuments i had seen as a young kid. but modernisation has effaced them.
regards. rajee.
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namitasachan posted 4 yrs ago
raji
is post me meri pasand ki bahut sari bate hai .lekin sabse pahale ham aapke kahani kahane yani ki kissagoi ke andaj ki bat karege .shuru me aapane apane parivar poorvaj ,gaon aur etihasik tathyo ka varanan kiya hai bahut hi interesting tarike se aur ravangi vali shaili me kiya hai .
ham bhi apani amma se unake bachpan aur unke nana ke raisi tariko ,ghodo , aur parivar ki mahilaon ke mele me poore lava lashkar ke saath jane ke kisse sunate hai to lagata hai kash samay ki sui ulti ghoom sakati aur ham bhi undino ka hissa ban sakate .
doosari bat hame mythological stories bahut pasand ati hai aur pardadaji ki yah kahani hame bilkul ek alag si duniya me le jati hai .
itihas ke purane panno ko bhi paltane ka apana alag maja hai .
aapaki is post me kitni tarah ki alag alag jankari mili hai .hame laga bas padate hi jaye .
thanks for this onbe
namita
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear meera,
thanks a ton. i have not written this blog to scare people but to highlight that such stories do have some historical connections---we can not deplore them---i know most people will trash it or rubbish it but i do draw out some deductions.
as regards the truth about the story--i can not vouch for it as this was written in urdu/persian in 1863-64 and translated nearly 100 years later in 1955/57. but my father does gives it a green signal.so, i reckon there is some truth in it. and we can only deduce this from our family history.
i will be now translating it into english---for the benefit of those who do not understand hindi--there are some good --well-meaning friends who wants to get a first hand account.
so, what is happening--poetess emminent of india. bet there is some lyrical composition brewing up in your mind.all the best. luv and regards. rajee.
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear aram bhusal,
thanks for recommending it. i am sure it might have been liked by you. your act of recommending it confirms it. this story was probably written in 1863-64 some---- 144 years back------it was in urdu/persian mix. i have put it in a condensed form with some introductory words. thanks again. regards. rajee.
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear binagupta,
thanks a lot for such wonderful words. no, we are not sikhs. my place is unique. we had some 360 villages of our clan across the sutluj river. we came from rajasthan alongwith dara shikoh. most of our clam converted to islam during aurengzeb's period and they migrated to pakistan in 1947 yea, we are rajputs if it has to be distinguished that way---
i claim no authenticity for the main story --it was written by my great grand father--a urdu and persian scholar--he was born in 1848 and died in 1928 at the age of 80.
as regards various other aspects mentioned by me--most of the things i had seen myself--such as dara shikoh' mehal---guruon wala kuaan---old fort(puraana kila) ---though officially my mohalla is still named patti-dara shikoh--and there is a place called sultaan---where ladies of the mohalla still light the lamp. most of the structurs do not exist today---even the alleged place of battle of the army of king of bhadravati and peole of my ancstral village has been eaten up by growing buliding activity---from a mere hamlet of 200 houses in 60's ,it has become a big town of around 30,000 people over the last 40 years.
it is the hub of doaba in punjab---a lot of nri money is flowing in---not those technically qualified but the great indian labour force--as a result a lot of construction activity---so history be damned---no one is interested.
i will--i will come out with other historical facts in some other blogs---thanks again. regards. rajee.
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear sainiput sir,
aap aaye bahaar aayi---na jaane kahan chhup gaye theaiye----humne bhi nikal liya aapko himalya ----nahi ---nahi----vishakhapatnam ke coast me underwater submarine se.
wecome back--
humne toh likh di hai kahaani----
samajhata hun main aapki preshaani---
magar app bhi toh jaante hain janaab-----
bhinn bhinn rango mey yeh bhi hai jindgaani.
this is a story written by my great grandfather-------he was born in 1848 and died in 1928 at the age of 80-----i have no claim on its authenticity. but it had been narrated to my father many a times by him---my oldman is 87 years and he vouches for this--no one can say whether it is true or false.
one thing is certain---writing is in our genes---my grand father --there is no evidence but my father is an urdu poet---yours truly writes-- and both my children---son and a daughter are good at it.
regards. have anice day. rajee.
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meerajay posted 4 yrs ago
hello uncle!
as everyone does, i read all blogs mann mein, lekhin, this one isat and read aloud heheh!! wow aapki yeh kahani , i loved it. questions about life after death, have always been pondering ion my mind. i fail to understand that aspect. sometimes stories i hear seem real, some unreal. your story seems very realistic!!
cheers
me
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binagupta posted 4 yrs ago
rajee
v. nice story n believable cos we hindus believe in reincarnation
btw is yr ancestry rajput or sikh-
i love history v. much
wish u can write or expand on the mahabharat and ramayan refs in yr story
bina
ps almost like alibaba's treasure- v. exciting
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Sainiput posted 4 yrs ago
my dear rajee kushwaha!
your story is aahaa, aahaa!!
bass hore kee dassan!
parhke kade rowan kade hassan!
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear poonam,
thanks a lot for such beautiful words? i am delighted. you are so nice. yes, i will post the details of the history of our ancestors as and when i get a chance to do so. i posted this story in hindi because it was in hindi and i did not want to change the meaning of the words. i could have very well translated this.
regards. rajee.
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear ashualec,
yes, it is so--this is our history--but then, it is just history--i am not sure if history has any role to play in our mental psyche these days. but i am one who does not run away from realities--i would like to face the realities and work out my future course of action. thanks for the interest. regards. rajee.
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ashualec posted 4 yrs ago
interesting ...so you are rajputs settled in punjab from centuries
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear ashualec,
.yea, my village balachaur is in indian punjab------- my ancestors, as per recorded history have been living there since 1670 ad-----they came along with dara shikoh from jaipur in rajsthan------- my village pre-existed before my ancestors came here-------- it is about 64 kms from hoshiapur on hoshiarpur-chandigarh road--some 70 kms from chandigarh---yea, that well stii exists in my village ----a few years back only some labourer had found the gold kangan--a kind of bracelet.
it was confirmed by my grand ma--that class mate was possessed by duratma's soul probably. my father also says the same as an anlytical thought of his grandfather but the grand father could not say assertively--why his friend was killed? he had been studying with him for last six seven years. he was from a nearby village--but the mystery is not resolved--and i leave it at that.
the chirand hillock still exists--but a temple has sprung up now there. i have such folk lores which do tell a different story of the epics. i will come out with them from time to time. how much is the real truth--i can not say. regards. rajee.
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ashualec posted 4 yrs ago
you said that it is in indian punjab , is it near hoshiarpur? and what about the gold , is it still found in wells? and also the friend who got killed he was reincarnation or what??
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rajee kushwaha posted 4 yrs ago
dear ashualec,
thanks a lot for your pleasing observations--hey the place is in indian punjab. lahore high court was the highest court of undivided punjab in those days.
yea, my grandma is no more---she died in 1982--as i had spent my childhood with her--i know a lot of family stories. my father is there--he is now 87 --he too confirms all these stories--there were a lot of historical papers with my tayaji---he burnt them in 1982--after grandma's death.
any specific query--i can answer. regards. rajee.
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Poonam Mishra posted 4 yrs ago
rajee sir,
bilkul chandrakanta tales ke tarah anohki aur rochak... something of mykind .... yon to sari kahani he bhaut aache bani... lekin aake poorvjon wali baat adhoori rah gaye.... uneed hai phir kisi roj app ateet ka ek panna kholnge....
rgds,
poonam
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ashualec posted 4 yrs ago
saahab ji , mere to rongate khade ho gaye ye padte padte , kya aapki dadi he abhi ? unhe aur kuch pata he is baare me ?? aap kyu nahi pakistan jaate aur apne purvajo ki vo jagah dekhte aur tehkikat karte ,...iske baare me agar kabhi bhi koi aur baat pata chale to mujhe jaroor batayiyega
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