Tuesday, 29 May 2012

हिन्दी-कविता-8 -----मैं हवा हूं बहती 'रावी' के किनारे !

मैं हवा हूं बहती 'रावी' के किनारे-
आती जाती हूं मैं बेधडक बेसहरे;
रोक पाए न मुझको सरहद की दीवारें,
यह मज़हव के फाटक,यह कांटेदार तारें.
कई देखे हैं मौसम,मैने 'रावी' के संग-
बदलते पानी के इसके 'सतलुज' में रंग;
कहीं 'झेलम'मिला,कहीं 'चिनाव' समाया,
मिला'व्यास'जब इनमें तो'पंजाब' बनाया.
कभी'बुध'कभी'हिन्दु',कभी'सिक्ख्-मुसल्मॉं'-
ऐशे बनती रही इनके पुरुखों की पहचान;
पर जुबान एक थी, रही एक ही नसल;
वही खून बहा इनकी रगों में असल.
खूब छिपे इसकी माटी में 'रामायाण' के अंश,
'लव' ने चलाया 'लाहौर' से 'राम' का वंश;
'बालमिकी' लिखी ने यहां से 'राम' की कहानी-
'अमृतसर'के साये में हैं 'रामतीर्थ' की निशानी.
कभी 'पोरस' का था यहां बोलबाला,
इक 'सिकन्दर'को उसने किया मतवाला;
कभी'मुगलों'ने अपना परचम लहराया,
तो 'रणजीत' ने भी सिक्का चलाया.
लाल होता रहा सदा इसके पानी का रंग,
कभी 'आर्यों'का हमला,कभी'मोर्यों से जंग;
वक्त बदलता गया,मोसम जाते रहे--
कारवां आते रहे ,इसमें समाते रहे .
यूं लग़ी एक दिन मज़हवी नफरत की आग,
जिसकी लपटों से अब भी जल रहा है पंजाब;
ऐसी खींची गयी इस ज्ञमीन पे लकीर,
जैसे ज्ल्लाद चलाए बकरे पे शमशीर.
बंट गया 'पंजाब' 'मुल्कों' क ज़ाम में,
लोग हो गए अलग मज़हव के नाम से;
दरिया बांधे गए पानी को मोड कर,
सडकें तोडी गई खाईयों को खोद कर.
पर बांट पाए न मुझको, कैसे करते बंटवारा,
न तलवार ही चलती, न कानून का साहारा-
मैं तो हवा हूं, इनके इतिहास की गवाह;
न मज़हव का डर, न सरहद की परवाह.
मैं विरासत हूं इनके उस पंजाब क़ी,
जब दोनो तरफ कौम एक थी;
मैं लहज़ा हूं इनकी उस जुबान का,
याद दिलाए इनको'एक'पहचान का.
चुपके चुपके हमेशा मैं चलती रही,
आपसी नफरत पे इनकी मैं हसती रही;
इक दिन मौका आया कुछ कहने को मेरे,
बनी 'अटल' तूफान,मैं 'शरीफ' के डेरे.
रोक पाए न मुझको चलने से तब,
नफरत हो गई थी तंग,नफरत से जब;
दोनो बोले मुझे तब बडे गौर से--
उडा पतंग हमारी अब इक डोर से.
ऐसे आंधी में "राज़ी" तब उडी तसवीर,
"कार्गल" में ले जा बैठी यह तकदीर;
मज़हव की नफरत अगर लिखेगी नसीब,
क्य जनता करेगी क्या करेगी तहज़ीव

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